कोरोना महामारी आधुनिक मानव इतिहास की सबसे विकट पहेलियों में से एक है। जिस प्रकार यह नीत नए आयाम बना रही है ,इससे प्रतीत होता है कि विगत 200 वर्षों में मानव द्वारा की गई समस्त प्रगति इसके आगे गौण है।
विश्व के अन्य देशों की भर्ती भारत भी इससे प्रभावित हुआ है एवं डटकर सामना भी कर रहा है। परंतु अन्य विकसित देशों के प्रकार हमारे पास कई चीजों की कमी है जैसे मूलभूत चिकित्सीय संसाधन एवं सुविधाएं ,सरकारी व्यवस्था का विकेंद्रीकरण, अर्थव्यवस्था पर मुक्त हस्त इत्यादि ।जिस प्रकार अमेरिका ने अपनी सकल घरेलू उत्पाद का करीब 10% अर्थव्यवस्था में विभिन्न साधनों के माध्यम से डाला है या अन्य यूरोपीय और विकसित अर्थव्यवस्थाओं द्वारा किए गए उपाय है , हम उतने उदार नहीं हो सकते ।नतीजन जो उपाय होंगे वह हर वर्ग तक नहीं पहुंच सकते।
मेरा मानना है की इस महामारी की सबसे बड़ी चुनौती है प्रवासी श्रमिकों की समस्या। सरकार ने शुरुआत से हर वर्ग के लिए प्रबंध करने की कोशिश की है लेकिन सबसे बड़े एवं कमजोर वर्ग अर्थात प्रवासी श्रमिकों का प्रबंधन फिलहाल तक एक पहेली बना हुआ है ।औरंगाबाद ट्रेन दुर्घटना या रोड पर नित्य श्रमिकों का मरना एक त्रासदी सा प्रतीत होता है ।यह विडंबना है कि जहां एक और पूंजीवादी ताकतें चाहती हैं कि श्रमिक वापस ना जाए और सबसे कम ध्यान उन्हीं की जरूरतो एवं आवश्यकता ऊपर है।
लॉक डाउन के पश्चात विभिन्न सरकारों ने अर्थव्यवस्था में गति लाने के लिए कई प्रयास किए हैं।लेकिन श्रमिक सुधार कार्यक्रम की जगह विभिन्न जरूरी श्रमिक कानूनों को ताक में रखा जा रहा है ।यह अत्यंत त्रासद है कि हमारी अर्थव्यवस्था के नीव के पत्थरो को और गहरा दबाया जा रहा है। जिस प्रकार उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश में मिनिमम वेज एक्ट मिनिमम वर्किंग अवर्स एक्ट इत्यादि बुनियादी श्रमिक कानूनों को खत्म किया गया है ,बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है।
जिस प्रकार दास प्रथा के समय दास एक वस्तु होता था उसका खुद का कोई मत या अधिकार नहीं होता था ,क्या हम फिर से अर्थव्यवस्था को गति देने के नाम पर वही तो नहीं कर रहे हैं ? क्या यह हमारे माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के "सबका साथ सबका विकास " उद्घोष के विपरीत नहीं होगा ? सबसे बड़ी बात है कि क्या यह मानवीय होगा कि एक दबे हुए वर्ग को प्रगति हासिल करना ? यह हमारे समग्र विकास के नारे का विरोधाभास है इससे ऊच नीच बढ़नी ही है खत्म नहीं होने वाली।
वक्त है पुराने विकास विरोधी श्रमिक कानूनों को हटाने का ।वक्त है की सरकार समग्र श्रमिक सुधारों को लागू करें । "सबका साथ सबका विकास" को चरितार्थ करने का यही सबसे उत्तम समय है । वक्त है कि हमारे नींव के पत्थरों को उनका उचित सम्मान देने का ,उन्हें यह भरोसा देने का की इस देश पर उनका भी उतना ही हक है जितना की इस देश के प्रधान सेवक का।
परिशिष्ट : आप लोग मुझसे कई मुद्दों पर असहमत हो सकते हैं एवं मैं उसका सम्मान करता हूं।
Very sensitive piece towards plight of our country makers, real vishwakarmas. really eye opening
ReplyDeleteNice Thought Sir
ReplyDeleteShai likha he aapne
ReplyDeleteExcellent thought...
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